उस्ताद अलाउद्दीन खां
यों तो बहुत से कलाकारों का संगीत
मुझे अच्छा लगता है, किन्तु जितना अधिक मैं उस्ताद अलाउद्दीन खां की कला से
प्रभावित हुआ हूँ, उतना अन्य किसी से नहीं। वे ही मेरे सब से प्रिय कलाकार हैं।
अलाउद्दीन खां का जन्म सन् 1862
में गांव शिवपुर हुआ था जो अब बंगलादेश में है । इनके पिता साधू खां को भी संगीत से
बड़ा लगाव था । व एक देहाती किसान थे । उन दिनों त्रिपुरा दरबार के उस्ताद काज़िम अली खां रबाब बजाने में बड़े प्रवीण माने जाते थे | परन्तु वे किसी को रबाब सिखाते
नहीं थे। अलाउद्दीन के पिता, काज़िम अली के घर के पिछवाड़े छुप कर उनका संगीत सुना
करते और घर आ कर उसका अभ्यास करते। एक दिन नौकरों ने उन्हें पकड़ कर काज़िम अली के
सामने पेश कर दिया। काज़िम अली ने अलाउद्दीन के पिता साधु खां का संगीत प्रेम देखकर
उन्हें सितार सिखाना आरम्भ कर दिया। उन्हीं दिनों अलाउद्दीन खां के बड़े भाई भी घर
पर तबले का अभ्यास किया करते थे । बालक अलाउद्दीन खा आठ वर्ष के थे, लेकिन फिर भी
सितार को समझने लगे थे और तबले की कई तालें भी याद कर चुके थे.।
बारह-तेरह वर्ष की आयु में ही जब अलाउद्दीन खां कलकत्ता पहुंच गए और वहां जमाने की
ठोकरें खा-खा कर संगीत सीखने लगे । कई-कई गुरुओं के पास ये एक साथ फिडल, बैण्ड और
शहनाई आदि सीखते । रात को एक नाटक कम्पनी में आरकेस्ट्रा बजा कर पेट भरने के लिए
कुछ कमाते । कितना परिश्रम भरा था इनका बाल्य काल |
पन्द्रह वर्ष की आयु में अलाउद्दीन खां ने अहमद अली नाम के एक सरोद वादक को अपना
गुरु बनाया। अहमद अली बड़ी संकुचित और संकीर्ण प्रकृति के सिद्ध हुए। कई वर्ष तक
इन से सेवा कराते रहे, किन्तु सिखाया कुछ भी नहीं । एक दिन जब अलाउद्दीन अपने जोड़
के काम का छुप कर अभ्यास कर रहे थे, तो पकड़े गए। अहमद अली ने इन्हें डांटा और फिर
कभी अभ्यास न करने का आदेश दिया। ऐसे गुरु के पास अलाउद्दीन का निर्वाह भला कैसे
हो सकता था ? उन्हें ऐसे गुरु से पीछा छुड़ाना पड़ा ।
कलाकारों का ऐसा छोटा हृदय देखकर अलाउद्दीन बड़े निराश हुए। इतने अधिक निराश कि
आत्महत्या की बात सोचने लगे। आत्महत्या के लिए उन्होंने अफीम भी खरीदी। किन्तु एक
मौलवी साहिब को सब बात मालूम हो गई। उनके प्रयत्नों में ये उस्ताद वजीर खां रामपुर
वाले के शिष्य बने । वजीर खां ने अलाउद्दीन की ओर पहले तो कुछ ध्यान न दिया,
किन्तु बाद में इनकी लगन और प्रतिभा को देखते हुए इन्हें संगीत शिक्षा देने लगे ।
अलाउद्दीन खां रामपुर दरबार के आरकेस्ट्रा में रख लिए गए। वहां भी इन्होंने अनेक
कलाकारों से बहुत कुछ सीखा। संगीत प्रेमी प्यार और आदर से इन्हें बाबा कहा करते थे
।
बाबा का स्वभाव बड़ा नम्र, सहनशील और उदार था। वे कभी किसी का दिल नहीं दुखाना
पसन्द करते थे। वह गुण ग्राहक कलाकार थे। जहां से जो कुछ मिला, उन्होंने सीखा |
huजिसने जो कुछ चाहा, उन्होंने उसे वही सिखाया ।
बाबा को अनेक साजों का पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त था। वे सितार, सुर बहार, रबाव,
बांसुरी, बीन, वीणा, सारंगी, वायलिन आदि साज बड़ी निपुणता से बजाते थे । सरोद उनका
प्रिय वाद्य था। उन्होंने स्वयं भी एक वाद्य यन्त्र का अविष्कार किया। इसका नाम
उन्होंने चन्द्र सारंग रखा था। उन्होंने स्वयं कुछ नए राग भी बनाए थे।
संगीत में अलाउद्दीन खां ने जिस पद्धति को अपनाया वह भले ही आलाप और ध्रुपद पर
आधारित थी, किन्तु थी बिल्कुल नई। सितार में भी उन्होंने न मसीत खानी का अनुकरण
किया न रज्जाखानी का, फिर भी इन दोनों की सुन्दरता को बनाए रखा।
महान् कलाकारों का किसी धर्म से सम्बन्ध नहीं होता। यह बात बाबा के विषय में भी सच
है। इनके पिता मुसलमान होते हुए भी शिव के भक्त थे। स्वयं बाबा शहर के मन्दिर में
मां शारदा की पूजा के लिए जाते थे । पाँचों समय नमाज भी पढ़ते थे। अपनी पुत्री का
नाम इन्होंने अन्नपूर्णा रखा था और उनका विवाह प्रसिद्ध सितारवादक रविशंकर से
किया। उन्होंने अपने पौत्तों के नाम रखे हैं- मुहम्मद आशीष, मुहम्मद ध्यानेश,
मुहम्मद आमेश और मुहम्मद प्राणेश ।
यह भारतीय संगीत का दुर्भाग्य है कि ऐसा महान कलाकार अब संसार में नहीं रहा। सितम्बर
6, 1972 में वे इस संसार को छोड़कर चले गए ।
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