दिलीप चन्द्र बेदी
पंजाब की हरी-भरी धरती पर सदा ही संगीत की तानें गूंजती रही हैं और संगीतकार पैदा
होते रहे हैं। आनन्दपुर पंजाब का एक ऐतिहासिक नगर है। इसी नगर में सन् 1901 में
दिलीप चन्द्र बेदी का जन्म हुआ था । आप का परिवार गुरु नानक देव की वंश परम्परा
में से है।
यह बेदी जी का दुर्भाग्य था कि छः सात वर्ष की आयु में ही उनके माता-पिता का
स्वर्गवास हो गया। इन का पालन-पोषण इनकी मौसी ने किया था।
आठ वर्ष की आयु में बेदी जी को पढ़ने के लिए अमृतसर भेजा गया । जहाँ इन्होंने अन्य
साधारण विषयों के साथ-साथ संगीत में भी रुचि लेनी आरम्भ कर दी। संगीत के प्रति
इनकी रुचि इतनी बढ़ी कि 15 वर्ष की आयु तक ये एकनिष्ठ होकर संगीत सीखते और रियाज
करते रहे। इस आयु में इन्होंने ध्रुपद, ख्याल, भजन और गजल आदि की गायकी में काफी
निपुणता प्राप्त कर ली थी ।
जब बेदी जी 17 वर्ष के थे तो जालन्धर की संगीत महासभा का वर्षिकोत्सव हुआ । इस
उत्सव में अच्छे-अच्छे कलाकारों ने भाग लिया था । उस युग में पं० भास्कर राव बाखले
भारत के एक महान ख्याल गायक माने जाते थे। उन्होंने बेदी जी को देखा और उनकी
प्रतिभा को पहचान कर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। 21 वर्ष की अवस्था तक बेदी जी
पं० भास्कर राव से संगीत की शिक्षा पाते रहे।
पं० भास्कर राव का देहान्त हो जाने पर बेदी जी को बड़ौदा जाने का अवसर मिला। वहाँ
इन के कुछ कार्यक्रम हुए। बड़ौदा के उस्ताद फैयाज खां एक बहुत बड़े कलाकार थे।
उन्होंने बेदी जी को सुना और उन की प्रतिभा पर मुग्ध होकर उन्हें अपने पास रख
लिया। इन्हीं दिनों आप को उस्ताद अल्ला दिया खां और उस्ताद हैदर खां से भी शिक्षा
प्राप्त करने का सुअवसर मिला। बेदी जी ने संगीत पर अधिक प्रभुत्व पाने के लिए
हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, मराठी और अंग्रेजी के अनेक संगीत ग्रन्थों का भी अध्ययन
किया !
1924 ई० में बेदी जी को पटियाला दरवार का निमन्त्रण मिला और वे रिवासन के दरबारी
गायक नियुक्त कर दिए गए। अगले ही वर्ष लखनऊ में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन हुआ।
आपने इस में भाग लेकर स्वर्ण पदक जीते ।
उन दिनों अच्छे कलाकारों को उपाधियां देने की प्रथा थी। बेदी जी जैसा कलाकार भला
इस क्षेत्र में पीछे कैसे रहता। आप ने कराची की सिंघ संगीत कान्फ्रेंस में भाग
लिया और 'महताबे मौसीकी' (संगीत के आकाश का चन्द्रमा) की उपाधि प्राप्त की।
गुरुकुल कांगड़ी ने आपको 'संगीत श्रृंगार' की उपाधि से सम्मानित किया। बेदी जी ने
एक राग की भी रचना की और उसका नाम 'बेदी की ललित' रखा। मैसूर के महाराज ने इन्हें
इस राग पर पुरस्कार दिया था ।
संगीत विषय पर बेदी जी ने कूछ लेख भी लिखे हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
हुए हैं।
आजकल आप राष्ट्रीय संगीत नृत्य नाटक अकादमी में पंजाब प्रदेश के प्रतिनिधि हैं, और
नई दिल्ली स्थित भारतीय कला केन्द्र में सीनियर प्रोफेसर के पद पर आसीन हैं।
बेदी जी के प्रिय राग हैं- रामकली, देसी, तोडी, असावरी, मल्हार, तानसेनी-तोड़ी,
बागेश्वरी, जोगिया, पीलू, चन्द्रकोंस, तुखारी, कल्याण, विहाग और छायानट आदि ।
वेदी जी के प्रसिद्ध शिष्यों में से कुछ शिष्यों के नाम हैं - श्रीमती माणिक
वर्मा, ललिता आयंगर, शंकर रात्र, गौनम अय्यर और हुस्न लाल भगत राम आदि ।
पंजाब की धरती ने दिलीप चन्द्र बेदी के रूप में भारतीय संगीत को यह अमूल्य रत्न
दिया है। समस्त देश को इन पर गर्व है।
दिलीप चंद्र वेदी एक ऐसे संगीतकार थे
जो खराब संगीत को सहन नहीं कर सकते थे और साधारण संगीत से लड़ते थे। वेदीजी को
चुनौती देने से कई संगीतकार डरते थे, क्योंकि वे उनके अनुसार किसी भी ऐसे व्यक्ति
को चुनौती देने में संकोच नहीं करते थे जो उचित राग नहीं गाता या बजाता था।
वेदीजी ने 1960 के दशक के आखिर में प्रदर्शन करना बंद कर दिया। उनकी आवाज़
लड़खड़ाने लगी। तब से वह शिक्षण, शोध परियोजनाओं और सलाहकार कार्यों में
समर्पित हो गया है। उनके दुनिया भर में अनुयायी हैं।
दिलीप चन्द्र वेदी का निधन 13 नवम्बर 1992 को हुआ।
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