Sangeet Ratnakar (Hindi) ।। संगीत रत्नाकर ।।

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Sangeet Ratnakar (Hindi) ।। संगीत रत्नाकर ।।

संगीत रत्नाक


 


।। संगीत रत्नाकर ।।

        भारतीय संगीत का प्राचीन ग्रंथ, "संगीत रत्नाकर", बहुत प्रसिद्ध है। 13वीं सदी में पं. शारंगदेव जी ने यह ग्रंथ लिखा था। पंडित जी का जन्म 1210 के बाद हुआ है। उनके कश्मीरी पूर्वज देवगिरी (दौलताबाद) में आकर बस गए। इनकी पढ़ाई बढ़िया ढंग से हुई कयों कि इनके पिता राज दरबार में वरिष्ठ कर्मचारी थे। पंडित जी ने कई जगहों की यात्रा की और देवताओं की पूजा की। इसके बाद संगीतरत्नाकर पुस्तक लिखी।
        यह ग्रंथ उत्तरी और दक्षिणी संगीत शैली का आधार है। इस ग्रंथ के सात भाग है। जिनमें बादन, नृत्य और गायन के परिभाषिक शब्दों के बारे में चर्चा की गई है |

        मतंग मुनि से अधिक जानकारी दी है पर पं. जी ने भरत का अनुसरण किया है। फिर भी, इनकी प्रतिभा और         मौलिकता मूर्च्छना, मध्यम ग्राम, सारणा चतुष्टई की कमी और कई विकृत स्वरों में दिखाई देती है।
        संगीतरत्नाकर’ में मूर्च्छना, नाद, ग्राम, स्वर, श्रुति और जाति के बारे में बहुत कुछ बताया गया है।
सात अध्याय निम्नलिखित हैं:-
(1) स्वराध्याय, (2) राग विवेकाध्याय, (3) प्रकीर्णध्याय, (4) प्रबन्धाध्याय, (5) तालाध्याय, (6) वाद्याध्याय, (7) नृत्याध्याय।

(1) स्वराध्याय:-

        नाद की उत्पत्ति, परिभाषा और भेद इस अध्याय में बताए गए हैं। इसके बिना वर्ण, अलंकार और ग्राम बताए गए हैं। इसके अलावा, वीणा पर 21 तार बांधने के लिए सारणा चतुष्टई का प्रयोग किया गया।

1.   1. नाद:-

         पंडित जी ने कहा कि संगीत में उपयोगी मधुर ध्वनि, जिसकी अंदोलन संख्या स्थिर और नियमित हो, नाद कहते हैं. वे मानते हैं कि नाद नकार और दकार, यानी वायु और अग्नि के संयोग से बनता है। और इसमें आहत नाद और अनाहत नाद दो प्रकार होते हैं।

2. श्रुति:-

         ध्वनि को अलग और स्पष्ट सुनने को श्रुति कहते हैं। पंडित ने इन्हें 22 माना है और इन्हें 4:3:2:4:4:3:2 के आधार पर विभाजित किया है।

3. स्वर :-

      पंडित ने कहा कि रंजक नाद स्वर है। उन के द्वारा सात शुद्ध और बारह विकृत माने गए।

4. ग्राम:-

         पंडित कहते हैं कि मूर्च्छनाओं का आधार स्वर समूह ग्राम होता है। इस के तीन प्रकार हैं।
(1) षडज ग्राम, (2) मध्यम ग्राम और (3) गंधार  ग्राम

5. मूर्च्छना:-

        सात स्वरों के क्रमानुसार पंडित जी ने आरोह-अवरोह को मूर्च्छना कहा है। षडज और मध्यम ग्राम की मूर्च्छनाएं 7-7 थीं।

6. वर्ण :-

         पंडित जी ने गाने की क्रिया को वर्ण कहा है। इस के चार प्रकार हैं:-
(1) स्थायी; (2) आरोही; (3) अवरोह; (4) संचारी।

7. अलंकार:-

         पंडित जी ने एक विशिष्ट वर्ण श्रृंखला को अलंकार कहा है। उनका कहना है कि अलंकार का प्रयोग स्वरों की सही स्थिति को बताता है और गायन तथा वादन में रंजकता बढ़ाता है।

8. थाट:- 

        पंडित जी ने काफी को शुद्ध थाट माना था, लेकिन आजकल लोग इसे बिलावल मानते हैं।

(2) राग विवेकाध्याय:-

         पंडित जी द्वारा यह अध्याय में  सभी रागों को दस भागों में बाँटा है:-
 (1) राग; (2) ग्राम राग; (3) उपराग; (4) भाषा; (5) विभाषा; (6) अंतरभाषा; (7) रागांग; (8) भाषांग; (9) उपांग; 

(10) क्रियांग।
        ये सभी भागों को 'दस विधि राग वर्गीकरण' कहा जाता है। इसके अलावा, यह स्त्री और पुरुष रागों को अलग करता है।

(1) राग की संख्या 20; 
(2) ग्राम राग की संख्या 30; 
(3) उपराग की संख्या 08; 
(4) भाषा की संख्या 96; 
(5) विभाषा की संख्या 20;
(6) अंतरभाषा संख्या 04;
 (7) रागांग संख्या 08;
 (8) भाषांग संख्या 21;
 (9) उपांग संख्या 03;
 (10) क्रियांग संख्या 12;

(3) प्रकीर्णध्याय:-

        पंडित जी ने वाग्गेयकार के 28 गुणों का विश्लेषण किया है। बिना इसके गायक के गुणों और दोषों को बताया है। पं० जी ने शब्द रचना और स्वर रचना दोनों करने वाले संगीतकार को वाग्गेयकार कहा है। वाग्गेयकार ने  छंद, व्याकरण, अलंकार, रस, ताल, लय, राग, स्वर और शीघ्र कवित्त का ज्ञान जैसे अनेक गुण धारण किए थे।

(4) प्रबन्धाध्याय:-

         इस अध्याय में पंडित जी ने मार्गी संगीत, देशी संगीत, निबद्ध अनिबद्ध गान, रागालाप, रूपकालाप आदि के बारे में चर्चा की है।

1. मार्गी संगीत:-

        मार्गी संगीत, जिसके नियम बहुत कठोर थे, गांधर्व लोगों ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए, प्रभु भक्ति के लिए इस्तेमाल किया था।

2. देशी संगीत:-

         जो संगीत हम लोग सुनते हैं और जो जनता को मनोरंजन देता है देशी संगीत स्वर पर आधारित है।

3. निबद्ध और अनिबद्धगान:-

         गीतों का संग्रह: ताल में बंधे हुए गीतों को निबद्ध गीत कहते थे, और ताल में ना बंधे हुए गीतों को अनिबद्ध गीत कहते थे।

4. रागालाप:-

         राग का आलाप 10 लक्षणों से होता था।

5. रुपकालाप:-

         रागालाप के बाद रुपकालाप होता था। यह आलाप रागालाप से बेहतर था। यह कई खंड़ों में बांधकर गाया जाता था। इसमें शब्द नहीं होते थे।

(5) तालाध्याय:-

         इस अध्याय में पंडित जी ने उस समय की लोकप्रिय तालें बताई हैं। इन सभी तालों में मार्गी और देशी ताले हैं।

(6) वाद्याध्याय:-

         पं० जी ने इस अध्याय में सभी वाद्यों को चार भागों में बांटा है।
1. तत् वाद्य; 2. सुषिर वाद्य; 3. अवनद् वाद्य; 4. घन वाद्य

        पंडित जी ने भी वाद्य और वादकों के गुणों और कमियों को बताया है।

1. तत् वाद्य:-

          सितार, गिटार, सारंगी, वीणा आदि, तारों वाले वाद्य तत् वाद्य के नाम से जाने जाते हैं।

2. सुषिर वाद्य:-

         बांसुरी, शंख, शहनारी आदि, सुषिर वाद्य हवा भरकर बजाए जाते हैं।

3. अवनद् वाद्य:-

         डमरु, नगाड़ा, ढोलक, तबला, ढोल आदि, अवनद् वाद्य चमड़े से बनाए जाते हैं।

4. घन वाद्य:-

         मंजीरा, झांझ, खड़ताल, नल तरंग, पलेट तरंग, घंटी, आदि, वाद्य धातु से नाए जाते हैं।

(7) नृत्याध्याय:-

         नृत्य और नाटक से जुड़े विषयों पर चर्चा इस अध्याय में  की गई है। नाटक में संगीत एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। नाटक में अभिनय के अलावा नृत्य, वादन और गायन  शामिल हैं।
        मैंने अपना ज्ञान संगीत रत्नाकर में मिलाकर सब लोगों को अर्पित कर दिया है, जैसे नदी सागर में मिलकर तृप्त होती है, अंत में पंडित शारंगदेव जी कहते हैं|
        पंडित शारंगदेव जी ने संगीत जगत में महान योगदान दिया है, जिसका नाम 'संगीत रत्नाकर' है। 

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1 Comments

V D Mannan said…
Very very helpful for the vocal exam