मूर्च्छना
"मूर्च्छना" शब्द से निकला
है, जिसका अर्थ
है "मूर्छ", जिसका अर्थ है
चमकना या उभरना,
इसलिए मूर्च्छना का
अर्थ है चमकती
हुई या उभरती
हुई वस्तु। पं.
ओंकारनाथ ठाकुर
ने कहा कि
चमकीली या उभरती
हुई वस्तु मूर्च्छना
कहलाती है।
भरत मुनि और
पं. शारंगदेव जी
ने कहा कि
सात स्वरों के
क्रमानुसार आरोह-अवरोह करना मूर्च्छना
(1) मूर्च्छना के लक्षण:
(1)
ग्राम-आश्रित
मूर्च्छना है।
(2) मूर्च्छना स्वर
क्रमबद्ध है।
(3) मूर्च्छना सब
कुछ है।
(4) ग्राम के किसी
भी स्वर से
मूर्च्छना शुरू
होती है।
(2) आरोह अवरोह और मूर्च्छना में अंतर:
दोनों बहुत अलग
हैं। हर मूर्च्छना
में श्रुति अंतर
बदलता है। लेकिन
आरोह-अवरोह में
श्रुति अंतर सदा
एक होता
है ।
पुराने लेखकों ने श्रुति से स्वर, स्वर से ग्राम और ग्राम से मूर्च्छना का जन्म बताया है। हर ग्राम में 7–7 मूर्च्छनाएं हैं। ग्राम तीन हैं:
(1) षडज ग्राम मूर्च्छनाएं:
(1) उत्तर मन्द्रा, (2) रजनी,
(3) उत्रायता, (4) शुद्ध
पड़जा, (5) मत्सरीकृता, (6) अश्वक्रांता,
(7) अभिरुद्गता।
(2) मध्यम ग्राम मूर्च्छनाएं:
1. सौवीरी, 2. हरिणाश्वा, 3. कलोपनता,
4. शुद्धमध्यमा, 5. मार्गी,
6. पौरवी, 7. हरिश्का
(3) गंधार ग्राम मूर्च्छनाएं:
गंधार
ग्राम गंधर्वों से
चले जाने से
भरत मुनि से
पहले अलोप हो
गया था, इसलिए
उनके नाम नहीं
मिलते।
पं. शारंगदेव जी ने चार प्रकार की मूर्च्छना बताई है।
(1) शुद्धा, (2) अंतर संहिता,
(3) काकली संहिता, (4) अंतर
काफली संहिता
आधुनिक युग में
मुर्च्छना का
कोई प्रचार नहीं
होता। क्योंकि हर
राग का आधार
'स' है। लेकिन
दक्षिण भारतीय संगीत
में मूच्र्च्छना अभी
भी प्रयोग की
जाती है।
0 Comments