|| उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ||
2 अप्रैल 1902 को कसूर (पाकिस्तान) में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब का जन्म पिता अली बक्श खां के घर हुआ था। उस समय, इनके पिता सारंगी वादक और गायक थे। उन्हें पहले संगीत का ज्ञान अपने चाचा काले खां से मिला, जो एक अच्छे गायक और कंपोज़र थे। कुछ समय बाद वे मर गए और बड़े गुलाम अली खां अपने पिता से शिक्षा लेने लगे। साथ ही, उन्होंने अपने पिता से सारंगी बनाना सीखा।
इनको सारंगी से अच्छी आमदन मिलने लगी, जिससे घर का खर्च अच्छा चलने लगा। सारंगी के साथ-साथ उनके गायन ने पंजाबियों को बहुत प्रभावित किया। आप कुछ समय बाद मुम्बई आकर उस्ताद सिंधी खां से गायन सीखने लगे। उनकी लोकप्रियता थोड़ी देर बाद वापस लाहौर आने तक काफी बढ़ी हुई थी।
1940 में कोलकाता के संगीत सम्मेलन में उन्हें पहली बार प्रसिद्धि मिली। 1944 में बिहार और बंगाल के संगीत सम्मेलनों में, 1943 में गया जी के संगीत सम्मेलन में और 1944 में मुम्बई के संगीत सम्मेलनों में बहुत प्रशंसा मिली। महात्मा गांधी ने इन्हें प्रशंसापत्र1945 में दिया था। आपके कार्यक्रम आकाशवाणी पर 1946 में प्रसारित होने लगे।
आप रियाज़ बहुत करते थे। ऐसा कहा जाता है कि आप हर दिन बीस घंटे काम करते थे। आप अपना रियाज़ 'कानून' नामक साज़ के साथ करते थे। आप विभाजन के बाद 1947 में भारत छोड़कर कराची, पाकिस्तान में रहने लगे। संगीत सम्मेलनों में भाग लेने के लिए आप कभी-कभी भारत आ जाया करते थे। पाकिस्तान में, हालांकि, इनका मन नहीं लगा। आप मुम्बई में स्थायी रूप से भारत सरकार से अनुरोध पर रहने लगे।
आपने गायन में पंजाब अंग की ठुमरी जोड़ी। इनकी ठुमरियाँ बहुत प्रसिद्ध हुईं जैसे "तिरछी नजरिया के बाण" और "आए ना बालम" । आप साधारण और लयात्मक तरीके से गाते थे । "मुगले आज़म" फिल्म में तानसेन के किरदार में गाकर 1960 में आपने प्रशंसा प्राप्त की।
इनको लकवा 1960 के आसपास हो गया। । सब धन खर्च हो गया। इनको पाँच हजार रुपये की धनराशि महाराष्ट्र सरकार ने दी। कुछ देर बाद ठीक हो गया और फिर कार्यक्रम चलाने लगा| यदि भारत में कोई संगीत कार्यक्रम होता तो खां साहब को बुला दिया जाता। इनके पुत्र मुनव्वर अली भी उनके साथ जाते और गायन करते।
खां साहब बहुत प्यारे और सरल थे। गायन के बिना वे जीवित नहीं रह सकते थे। उन्होंने पंजाबी अंग की ठुमरी में बेहतरीन प्रदर्शन किया। स्वरों पर पूरा नियंत्रण था। अपनी आवाज को किसी भी तरह घुमा सकते थे। जब मुश्किल स्वर समूह बड़ी आसानी से गाते थे, तो सुनने वाले अपने दांतों तले अंगुलिया दबा लेते। आप शरीर से पहलवान लगते थे। बड़ी बड़ी मूंछे, काली टोपी और बंद मोहरी का पजामा था।
आप को संगीत नाटक अकैडमी पुरस्कार1962 में मिला और 1962 में पद्म भूषण भी मिला। फिर आपने लंबी बीमारी के बाद 25 अप्रैल 1968 को बशीरबाग पैलस हैदराबाद में अंतिम सांस ली। “बड़े गुलाम अली खां” यादगार सभा, उनकी शार्गिद मालती गिलानी ने उनाई है। जो हर साल उत्कृष्ट “ठुमरी फैसटीवल” और “सवरंग उत्सव” आयोजित करती है।
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